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श्रीरामहृदय स्तोत्रम् PDF free download
श्रीरामहृदय स्तोत्रम्
ततो रामः स्वयं प्राह हनूमन्तमुपस्थितम्।
श्रृणु तत्त्वं प्रवक्ष्यामि ह्यात्मानात्मपरात्मनाम् ॥ १॥
तदनन्तर श्रीरामचन्द्रजी ने सम्मुख खड़े हुए पवन – पुत्र हनुमान से स्वयं कहा- “मैं तुम्हें आत्मा, अनात्मा और परात्मा का तत्त्व बताता हूँ, (सावधान होकर) सुनो।
आकाशस्य यथा भेदस्त्रिविधो दृश्यते महान्।
जलाशये महाकाशस्तदवच्छिन्न एव हि।
प्रतिबिम्बाख्यमपरं दृश्यते त्रिविधं नभः ॥ २॥
जलाशय में आकाश के तीन भेद स्पष्ट दिखायी देते हैं- एक महाकाश(जो सर्वत्र व्याप्त है।) ‘, दूसरा जलावच्छिन्न आकाश(जो केवल जलाशय में ही परिमित है।) ‘ और तीसरा प्रतिबिम्बाकाश(जो जलमें प्रतिबिम्बित है।) । जैसे आकाश के ये तीन बड़े-बड़े भेद दिखायी देते हैं।
बुद्ध्यवच्छिन्नचैतन्यमेकं पूर्णमथापरम्।
आभासस्त्वपरं बिम्बभूतमेवं त्रिधा चितिः ॥ ३ ॥
उसी प्रकार चेतन भी तीन प्रकार का है— एक तो बुद्ध्यवच्छिन्न चेतन (जो बुद्धि में व्याप्त है) , दूसरा जो सर्वत्र परिपूर्ण हैं और तीसरा जो बुद्धि में प्रतिविम्बित होता है – जिसको आभासचेतन कहते हैं।
साभासबुद्धेः कर्तृत्वमविच्छिन्नेऽविकारिणि।
साक्षिण्यारोप्यते भ्रान्त्या जीवत्वं च तथा बुधैः ॥ ४ ॥
इनमें से केवल आभास चेतन के सहित बुद्धि में ही कर्तृत्व है अर्थात् चिदाभास के सहित बुद्धि ही सब कार्य करती है। किन्तु अज्ञजन भ्रान्तिवश निरवच्छिन्न, निर्विकार, साक्षी आत्मा में कर्तृत्व और जीवत्व का आरोप करते हैं अर्थात् उसे ही कर्त्ता भोक्ता मान लेते हैं।
आभासस्तु मृषा बुद्धिरविद्याकार्यमुच्यते।
अविच्छिन्नं तु तद्ब्रह्म विच्छेदस्तु विकल्पतः ॥ ५ ॥
(हमने जिसे जीव कहा है उसमें) आभास-चेतन तो मिथ्या है (क्योंकि सभी आभास मिथ्या ही हुआ करते हैं) । बुद्धि अविद्या का कार्य है और परब्रह्मा परमात्मा वास्तव में विच्छेदरहित है अतः उसका विच्छेद भी विकल्प ही माना हुआ है।
अविच्छिन्नस्य पूर्णेन एकत्वं प्रतिपाद्यते।
तत्त्वमस्यादिवाक्यैश्च साभासस्याहमस्तथा ॥ ६ ॥
(इसी प्रकार उपाधियों का बोध करते हुए) साभास अहंरूप अवच्छिन्न चेतन (जीव) की ‘तत्त्वमसि‘ (तू वह है) आदि महावाक्यों द्वारा पूर्ण चेतन (ब्रह्म) के साथ एकता बतलायी जाती है।
ऐक्यज्ञानं यदोत्पन्नं महावाक्येन चात्मनोः।
तदाऽविद्या स्वकार्यैश्च नश्यत्येव न संशयः ॥ ७ ॥
जब महावाक्य द्वारा (इस प्रकार) जीवात्मा और परमात्मा की एकता का ज्ञान उत्पन्न हो जाता है उस समय अपने कार्यो सहित अविद्या नष्ट हो ही जाती है-इसमें कोई सन्देह नहीं।
एतद्विज्ञाय मद्भक्तो मद्भावायोपपद्यते।
मद्भक्तिविमुखानां हि शास्त्रगर्तेषु मुह्यताम्।
न ज्ञानं न च मोक्षः स्यात्तेषां जन्मशतैरपि ॥ ८॥
मेरा भक्त इस उपर्युक्त तत्त्व को समझकर मेरे स्वरूप को प्राप्त होने का पात्र हो जाता है पर जो लोग मेरी भक्ति को छोड़कर शास्त्र रूप गड्ढे में पड़े भटकते रहते हैं उन्हें सौ जन्म तक भी न तो ज्ञान होता है और न मोक्ष ही प्राप्त होता है।
इदं रहस्यं हृदयं ममात्मनो
मयैव साक्षात्कथितं तवानघ।
मद्भक्तिहीनाय शठाय न त्वया
दातव्यमैन्द्रादपि राज्यतोऽधिकम् ॥ ९ ॥
हे अनघ ! यह परम रहस्य मुझ आत्मस्वरूप राम का हृदय है; और साक्षात् मैंने ही तुम्हें सुनाया है। यदि तुम्हें इन्द्रलोक के राज्य से भी अधिक सम्पत्ति मिले तो भी तुम इसे मेरी भक्ति से हीन किसी दुष्ट पुरुष को मत सुनाना।
श्रीरामहृदय स्तोत्र फलश्रुति pdf Download
श्रीमहादेव उवाच
एतत्तेऽभिहितं देवि श्रीरामहृदयं मया।
अतिगुह्यतमं हृद्यं पवित्रं पापशोधनम् ॥ १० ॥
श्रीमहादेवजी बोले- हे देवि ! मैंने तुम्हें यह अत्यन्त गोपनीय, हृदयहारी, परम पवित्र और पापनाशक ‘श्रीरामहृदय‘ सुनाया है।
साक्षाद्रामेण कथितं सर्ववेदान्तसङ्ग्रहम्।
यः पठेत्सततं भक्त्या स मुक्तो नात्र संशयः ॥ ११ ॥
यह समस्त वेदान्त का सार-संग्रह साक्षात् श्रीरामचन्द्रजी का कहा हुआ है। जो कोई इसे भक्तिपूर्वक पढ़ता है वह निस्सन्देह मुक्त हो जाता है।
ब्रह्महत्यादि पापानि बहुजन्मार्जितान्यपि।
नश्यन्त्येव न सन्देहो रामस्य वचनं यथा ॥ १२ ॥
इसके पठनमात्र से अनेक जन्मों के सञ्चित ब्रह्महत्यादि समस्त पाप निस्सन्देह नष्ट हो जाते हैं, क्योंकि श्रीराम के वचन ऐसे ही हैं।
योऽतिभ्रष्टोऽतिपापी परधनपरदारेषु नित्योद्यतो वा
स्तेयी ब्रह्मघ्नमातापितृवधनिरतो योगिवृन्दापकारी
यः सम्पूज्याभिरामं पठति च हृदयं रामचन्द्रस्य भक्त्या
योगीन्द्रैरप्यलभ्यं पदमिह लभते सर्वदेवैः स पूज्यम् ॥ १३ ॥
जो कोई अत्यन्त भ्रष्ट, अतिशय पापी, परधन और परस्त्रियों में सदा प्रवृत्त रहनेवाला, चोर, ब्रह्म-हत्यारा, माता- पिता का वध करने में लगा हुआ और योगिजनों का अहित करनेवाला मनुष्य भी श्रीरामचन्द्रजी का पूजन कर इस रामहृदय का भक्तिपूर्वक पाठ करता है वह समस्त देवताओं के पूज्य उस परमपद को प्राप्त होता है जो योगिराजों को भी परम दुर्लभ है।
इति श्रीमदध्यात्मरामायणे उमामहेश्वरसंवादे बालकाण्डे श्रीरामहृदयं स्तोत्रम् नाम प्रथमः सर्गः ॥ १ ॥
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